
पराजित लोगों के लिए आशा
-अरूण जेटली
आम चुनावों के परिणाम आने में अभी सिर्फ तेरह दिन हैं। परंपरागत राजनातिक प्रतिद्वंद्वी खुले आम या गुपचुप वार्तालाप करने लगे हैं। उन्हें इस बात की आशा है कि भारतीय वोटर न तो समझदार है न ही बुद्धिमान और इसलिए वह अनिश्चय भरा फैसला देगा। लेकिन यह धारणा 23 मई 2019 को दूर हो जाएगी। कांग्रेसी अनावश्यक रूप से सोच रहे हैं कि उनकी पार्टी दोहरे अंक से आगे निकल जाएगी। उनकी आकांक्षा का स्तर निराशाजनक रूप से अपर्याप्त है। मायावती रिंग में कूद पड़ने को तैयार हैं। ममता बनर्जी और चन्द्रबाबू नायडू उम्मीद कर रहे हैं कि वे विपक्ष के सूत्रधार हैं। केसीआर गैरभाजपा, गैरकांग्रेस पार्टियों के गठबंधन का सपना देख रहे हैं।
ये आशावान नेता ज़मीनी हकीकत को समझने में असफल रहे हैं। अब जबकि परिणाम आने वाले ही हैं, दो दावेदार-ममता दीदी और चन्द्रबाबू नायडू ने समझ लिया होगा कि उन्होंने अपने-अपने राज्यों में काफी कुछ खो दिया है। मतदाता जिम्मेदार सरकार चाहता है न कि राजनितिक उछलकूद। चुनाव ही वह समय होता है जब मतदाता बोलता है। जो अन्य पार्टी हिल जाएगी वह है कांग्रेस जो 2014 की अपनी अंकतालिका में कोई खास अंक नहीं जोड़ पाएगी। अराजक आम आदमी पार्टी लगभग शून्य पर पहुंच जाएगी।
अब जबकि छठे चरण का चुनाव लगभग समाप्ति की ओर है कुछ खास विशेषताएं दिख रही हैं। जहां-जहां चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच है, कांग्रेस टक्कर देने में असमर्थ है। कुछ क्षेत्रीय पार्टियां लड़ाई करती दिख रही हैं। लेकिन भारत अब बदल गया है। आज का युवा परंपरागत जातिवादी समीकरण से दूर हो गया है। अब वंशवादियों के लिए तालियां नहीं बजतीं बल्कि उनका उपहास उड़ाया जाता है। नय़ा भारत अपने नेताओं के प्रदर्शन को बहुत कठोरता से मापता है। गांधी परिवार की नई पीढ़ी मानते हैं कि राष्ट्र की सुरक्षा कोई मुद्दा ही नहीं है। ठीक इसके विपरीत राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे जब नेता बड़ी सभाओं में उठाते हैं, उन पर जनता बहुत तालियां बजाती है। क्या विपक्षी दल के नेताओं को भीड़ में मोदी-मोदी की आवाजों से सामना नहीं होता? कुछ अपवादों को छोड़कर सारे देश का दौरा कर रहे मीडिया कर्मियों ने क्या यह नहीं बताया कि मोदी के समर्थन की जोरदार लहर देश भर में फैली हुई है? प्रधान मंत्री का पद सिर्फ एक ही व्यक्ति के खाते में जाता दिख रहा है। भारत में बहुत कम बार ही किसी कार्यरत प्रधान मंत्री को फिर से सत्ता में आने का मौका मिला है। 2014-19 की अवधि में एक ही पार्टी की बहुमत सरकार ने जिसमें सहयोगी दल भी थे, देश को स्थिर और निर्णायक सरकार दी। विपक्षियों का गठबंधन कुछ ही महीने चलता है। मतदाता की इस बात पर स्पष्ट राय है कि उस पांच साल की सरकार चाहिए न कि पांच महीने की। उसके सामने इस प्रकार मोदी बनाम अराजकता का विकल्प है। स्पष्ट है कि मतदाताओं के विवेक पर हमें विश्वास करना चाहिए। मोदी के लिए मतदाताओं की सहमति इस बार 2014 से कहीं ज्यादा होगी।
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