
गौरान्वित हिन्दू बनने का सुविधाजनक मौसम
-अरुण जेटली
1980 के उत्तरार्ध और 1990 के पूर्वार्ध में विश्व हिन्दू परिषद एक स्टिकर वितरित किया करता था जो बाद में चलकर एक नारे का सूत्रधार बन गया और वह था-गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं। बीजेपी को छोड़कर कुछ अन्य समूहों ने इसे स्वीकार कर लिया। कुछ ने इसे साम्प्रदायिकता का प्रतीक बताकर इसकी निंदा की। मुझे पक्का विश्वास है कि उन दिनों विश्व हिन्दू परिषद के सदस्य रहे हुए लोग इस बात पर हंस रहे होंगे कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह जो भोपाल से चुनाव लड़ रहे हैं, खुले आम घोषणा करने को विवश हो गये हैं कि मैं भी एक गौरान्वित हिन्दू हूं। 1950 में नेहरू काल में धर्मनिरपेक्षता का मतलब कुछ और था। पंडित जी मानते थे कि हिन्दूवाद पुरातनपंथी, कट्टरवादी और प्रगतिविरोधी है। उनका यह भी मानना था कि यह एक वैज्ञानिक प्रकृति तैयार करने में बाधा डालता है।
यह राजनीति दशकों तक चलती रही। बहुकोणीय मुकाबले में सपा, बसपा आरजेडी और अब तो तृणमूल जैसी पार्टियां कांग्रेस से भी एक कदम आगे चली गई हैं। उन्होंने अल्पसंख्यकों के मन में भय पैदा किया और खास जातियों तथा समूहों का एक जुटाव मुसलमानों के साथ किया। उन्होंने इस ध्रुवीकरण को अपने बचाव का जरिया बनाया। इस चलन से दूरी बनाने की कोशिश भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने 1980 और 1990 में की। उन्होंने एक सैद्धांतिक राज्य के विरुद्ध आवाज उठाई। साथ ही उन्होंने अल्पसंख्यकों को सामनता का अधिकार देने की बात कही। लेकिन उनका मुख्य मुद्दा यह था कि धर्मनिरपेक्षता बहुसंख्यकों की धुलाई की प्रिय युक्ति नहीं हो सकती है। उन्होंने इस मामले को आधुनिक शब्दकोष में समझाया। भारत के बड़े हिस्से में लोग इस बातों को विवेकपूर्ण मानने लगे। इस देश में बहुसंख्यक लोग उदार हैं, सहनशील हैं लेकिन अपने धर्म के बारे में क्षमाप्रार्थी नहीं रहे। कांग्रेस इस सोते हुए विशाल प्राणी की शक्ति को समझ नहीं पाई। शाह बानो मामले के बाद राजीव गांधी द्वारा कानून बनाये जाना भारतीयों की प्रतिक्रिया को समझ पाने में उनकी असमर्थता के कारण हुआ। यह गलती यूपीए सरकार में भी दोहराई जाती रही। उस समय गरीबों को एक वर्ग के रूप में मानने की बजाय प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि देश के खजाने पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार है।
राहुल गांधी
इस बात की तह में गये बगैर कि क्या कोई अपनी दादी की जाति को पा सकता है, कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने को जनेयू धारी ब्राह्मण घोषित कर दिया। अब उन्हें शिवभक्त घोषित कर दिया गया है। वह मंदिरों में जाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं और हर कार्यक्रम को बड़ा अवसर बनाने की कोशिश करते हैं। धर्म के प्रति उनका यह विश्वास 2004, 2009 या 2014 में दिखाई नहीं पड़ता था। क्या वह महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला के उन नियमित बयानों का वह यह कहकर छुटकारा पा लेते हैं कि मेरा विचार कुछ और है लेकिन शबरीमला पर मेरी पार्टी के जो विचार हैं मैं उन पर चलता हूं। लेकिन राहुल अयोध्या में राम मंदिर और शबरीमला के बारे में अपनी धारणा कभी अभिव्यक्त नहीं करते हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में उनके विचार बहुत ही ज्यादा प्रश्नों के घेरे में हैं। वह देशद्रोह के कानून को वापस ले लेना चाहते हैं। वह अफस्पा कानून हटाना चाहते हैं और जम्मू-कश्मीर में सेना को कमज़ोर करना चाहते हैं। उन्होंने जवाहर लाल यूनिवर्सिटी जाकर उन लोगों का समर्थन करने की धृष्टता की जो “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह” और “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं” के नारे लगा रहे थे।
आज तक उन्होंने जेनयू में अपनी उपस्थिति के बारे में कुछ नहीं कहा है।
दिग्विजय सिंह
भोपाल से कांग्रेस के उम्मीदवार बहुसंख्यकों पर आक्रमण करने के लिए ख्याति प्रसिद्ध हैं। उन्होंने दावा किया था कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुआ बटला हाउस मुठभेड़ फर्जी था। वे आतंकवादियों के समर्थन में और सुरक्षा बलों के विरुद्ध अभियान चला रहे थे। वह आजमगढ़ भी गये जहां उन्होंने मारे गये आतंकवादियों के रिश्तेदारों से भी मिले। उन्होंने ही हिन्दू आतंकवाद का सिद्धांत गढ़ा था। अब वोटरों के गुस्से को देखते हुए वे फिर अपने हिन्दू होने पर गर्व करने लगे हैं।
आम आदमी पार्टी
आम आदमी पार्टी के पास कोई जवाब नहीं है। उसके नेता वो लोग हैं जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में बहुत ही आपत्तिजनक भाषण दिये हैं। जेहादियों और पृथकतावादियों के प्रति उनकी सहानुभूति जग जाहिर है। “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं” जैसे नारों का समर्थन करने के अलावा उसने ये नारे लगाने वाले जेहादियों और पृथकतावादियों के खिलाफ दिल्ली पुसिल द्वारा दायर मुकदमे की फाइल लटका रखी है। उसका दिल उन लोगों के साथ है लेकिन उसे यह लग रहा है कि दिल्ली के वोटर ऐसी धारणा वाले उम्मीदवारों और पार्टी को कभी स्वीकार नहीं कर सकते हैं। पार्टी को इस बात का जवाब देना होगा कि वह राष्ट्र विरोधी नारे लगाने वालों पर मुकदमा चलाने के लिए अनुमति क्यों नहीं दे रही है?
इस पार्टी का ढोंग उस समय चरम सीमा पर पहुच गया जब पिछले दिनों उसकी एकमात्र महिला उम्मीदवार ने अपने माता-पिता की अति वामपंथी विचारधारा त्याग दी। उसके माता-पिता उन लोगों में रहे हैं जो अफज़ल गुरू को माफी देने के पक्ष में रहे हैं। उस महिला उम्मीदवार ने न केवल अपना धर्म अपना लिया बल्कि अपने पिता और पति की जाति अपने ऊपर चस्पां कर ली। मुझे इस बात पर हैरानी होती है कि लोग अपने राजनीतिक फायदे के लिए कितनी आसानी से अपने धर्म और जाति का इज़हार करने लगते हैं।
भारत देशभक्तों का देश है। विरोधाभासी इस देश में बहुत कम तादाद में हैं। ऐसे लोग असंतुष्ट प्रकृति के होते हैं। वे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया में गैर आनुपातिक जगह पाने के लिए खफा हो जाते हैं। जो लोग इस समूह में नहीं हैं वे भी चुनाव जीत सकते हैं। यह लोकतंत्र की शक्ति है। धर्म अब अकस्मात चलन में आ गया है। बहुसंख्यकों की निंदा की बजाय अब गौरान्वित हिन्दू का स्वघोषित या पंजाबी हिन्दू क्षत्रिय का टाइटल ले लेते हैं। हालत यह है कि आज नास्तिक भी अपना धर्म या जाति अपने ऊपर चस्पां कर लेते हैं। आखिरकार चुनाव धर्म परिवर्तन का सुविधाजनक मौसम जो है।
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